देहरादून: राजकीय दून मेडिकल कॉलेज चिकित्सालय में सर्जरी के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक उपलब्धि दर्ज की गई है। पुरुषों में पनपने वाली बर्जर बीमारी (Buerger’s Disease) से पीड़ित मरीज का इलाज चिकित्सकों ने एक नई और जटिल तकनीक के जरिए सफलतापूर्वक किया है। इस नवाचार को चिकित्सकों ने “लेप्रोस्कोपिक ओमेंटल फ्री ग्राफ्टिंग” (Laparoscopic Omental Free Grafting) नाम दिया है।
जानकारी के अनुसार बीते शनिवार को राजकीय दून मेडिकल कॉलेज चिकित्सालय में एक ऐतिहासिक सर्जरी हुई। इस ऑपरेशन टीम में डॉ. अभय कुमार, डॉ. दिव्यांशु, डॉ. गुल्शेर, डॉ. मोनिका, डॉ. वैभव, डॉ. मयंक और डॉ. अनूठी सहित कई विशेषज्ञ शामिल थे। ऑपरेशन टीम ने बिना पेट काटे लेप्रोस्कोपिक तकनीक का इस्तेमाल किया, जिसमें पेट पर बड़ा चीरा लगाने के बजाय छोटे छेद के जरिए अंदर से झिल्ली को काटकर अलग किया गया। इसके बाद झिल्ली को त्वचा के नीचे बनाई गई टनल के रास्ते मरीज के पैरों तक पहुंचाया गया, ताकि वहां नई रक्त धमनियों का विकास हो सके और रक्त प्रवाह पुनः शुरू हो जाए।
पुरुषों में तेजी से फैल रही बीमारी
यह तकनीक अब तक देश में कहीं भी उपयोग नहीं की गई थी। “यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल थी, लेकिन टीम ने इसे पूरी सावधानी के साथ पूरा किया। मरीज फिलहाल पूरी तरह स्वस्थ है और हम इसे जल्द ही शोध में शामिल करेंगे।” विशेषज्ञों ने बताया कि बर्जर बीमारी (Thromboangiitis Obliterans) मुख्य रूप से बीड़ी और तंबाकू का अत्यधिक सेवन करने वाले पुरुषों में पाई जाती है। यह बीमारी 50 वर्ष से अधिक आयु के पुरुषों में तेजी से फैल रही है। बीमारी के दौरान पैरों की रक्त धमनियों में सूजन आ जाती है, जिससे रक्त प्रवाह बाधित हो जाता है और धीरे-धीरे ऊतक (Tissue) मरने लगते हैं। इस बीमारी के तीन चरण माने जाते हैं:-
1. पहला चरण – क्लॉडिकेशन (Claudication): चलते समय पैरों में असहनीय दर्द होता है।
2. दूसरा चरण – रेस्ट पेन (Rest Pain): बैठे या आराम की अवस्था में भी लगातार दर्द बना रहता है।
3. तीसरा चरण – गैंग्रीन या अल्सर (Gangrene/Ulcer): पैरों में घाव और ऊतकों का सड़ना शुरू हो जाता है।
अंग काटना ही होता था एकमात्र विकल्प
अब तक इस बीमारी का कोई स्थायी या क्लीनिकल इलाज उपलब्ध नहीं था। गंभीर स्थिति में मरीज का अंग काटना (Amputation) ही एकमात्र विकल्प होता था। नई सर्जरी में उपयोग की गई आंत की झिल्ली (Omentum) शरीर में नई रक्त धमनियों को विकसित करने में सक्षम होती है। जब इस झिल्ली को पैरों की प्रभावित जगह पर लगाया जाता है, तो यह नई केशिकाओं (Capillaries) का निर्माण करती है और रक्त संचार पुनः शुरू कर देती है। इस प्रक्रिया में लगभग चार से पांच दिन का समय लगता है। पारंपरिक सर्जरी में जहां पेट पर बड़ा चीरा लगाकर झिल्ली निकाली जाती थी, वहीं लेप्रोस्कोपिक पद्धति से अब छोटे चीरे के माध्यम से यह कार्य किया गया, जिससे मरीज को कम दर्द और जल्दी रिकवरी मिलती है। डॉ. का कहना है कि, “लेप्रोस्कोपिक तकनीक से इस प्रक्रिया को करने के बाद न केवल संक्रमण का खतरा घटता है, बल्कि मरीज कुछ ही दिनों में सामान्य गतिविधियाँ करने लगता है।”
20 में से 15 मरीज पर्वतीय क्षेत्रों से
दून मेडिकल कॉलेज के सर्जरी विभाग के अनुसार, हर महीने लगभग 20 मरीज बर्जर बीमारी से ग्रसित होकर इलाज के लिए आते हैं। इनमें से लगभग 15 मरीज पर्वतीय इलाकों से होते हैं। चिकित्सकों का कहना है कि लंबे समय तक बीड़ी पीने से निकोटीन धमनियों में जम जाता है, जिससे सूजन और रक्त प्रवाह रुकने की स्थिति बनती है। यह बीमारी अब एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या बनती जा रही है। विशेषज्ञों की टीम की इस लेप्रोस्कोपिक ओमेंटल फ्री ग्राफ्टिंग तकनीक ने चिकित्सा जगत में नई उम्मीद जगाई है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर यह प्रक्रिया दीर्घकालिक रूप से सफल रहती है, तो भविष्य में गैंग्रीन या अंग काटने जैसी नौबत से बचा जा सकेगा। यह उपलब्धि न केवल दून अस्पताल के लिए, बल्कि उत्तराखंड और देश के चिकित्सा क्षेत्र के लिए एक बड़ी सफलता मानी जा रही है।
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